मीरा बाई का परिचय (Meera bai ka Jivan Parichay)
कृष्ण भक्त कवियत्री व गायिका मीराबाई (Meera bai) सोलवीं सदी के भारत के महान संतों में से एक थी। अपने अगाध एवं माधुर्य भाव कृष्ण भक्ति के कारण मीरा बाई काफी प्रसिद्ध हुई। इसलिए मीरा बाई को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है।
अगर इतिहास के पन्नों में हम भक्ति योग की खोज करे तो जैसा मीराबाई का चरित्र था, उनसे बढ़िया शायद ही कोई हमें उदाहरण देखने को मिले।
दुर्भाग्यवस जिस मीरा के नाम में एक भक्ति प्रवाह का स्रोत दिखाई देता है, उस नाम के संबंध में बहुत से भ्रांतियां जोड़ी गई है ।
बहुत से लोगों ने अलग अलग अंदाजा लगाया है, भाषा विज्ञान या शब्द विज्ञान के आधार पर भी उनका नाम बताने का प्रयास किया गया कि मीरा शब्द की उत्पत्ति मीरा, पीर, मिहिर आदि से है।
श्री शास्त्री के अनुसार मीरा शब्द का मूल रूप ‘मिहिर’ से संबंधित बताया गया। प्रोफेसर नरोत्तम दास स्वामी ने माना कि प्राकृत और अपभ्रंश के व्याकरण के आधार पर मीरा का मूल रूप “बीरा” है। ऐसी बहुत सी दलीलों से एक ही ध्वनि निकलती है कि मेरा नाम अस्वभाविक है।
परंतु हमारी राय और इतिहास में देखा जाए तो यह नाम राजपूतों में कोई नया नहीं था। मालदेव की एक लड़की का नाम भी मीरा था जिसका विवाह बागड़ के राजकुमार से हुआ था।
नाम की तरह ही मीरा की जीवन में हुई घटनाओं जैसे जन्म, विवाह, मृत्यु बहुत ही विवादों से जोड़ी गयी है। कर्नल टॉड ने मीरा का विवाह है कुंभा से होना लिखा है जो कि बहुत ही भ्रांति पूर्ण है।
क्योंकि महाराणा कुंभा कालीन किसी भी आधार से यह नहीं माना जा सकता, ना हीं इसका कुछ प्रमाण ह। शायद ऐसी संभावना है कि कर्नल टॉड कुंभा को कृष्ण भगत मानकर मीरा का नाम उस से जोड़ दिया हो।
कृष्ण भक्त मीराबाई का पूरा जीवन परिचय (Meera bai ka jivan parichay in Hindi) जानने के लिए इसलिए को अंत तक पूरा पढ़ें…..
मीरा बाई (Meera Bai) का जन्म व प्रारंभिक जीवन
मीराबाई का जन्म मारवाड़ के पाली के एक गांव कुड़की में लगभग 1498-1499 ईसवी में हुआ था। मीराबाई के पिता का नाम रतन सिंह था व इनके दादा का नाम राव दूदा था।
मीराबाई अपने पिता रतन सिंह की इकलौती पुत्री थी। मीराबाई जब बहुत छोटी थी तब ही उनकी मां का देहांत हो गया था। कम उम्र में मां का साया हट गया और पिता अपने काम में व्यस्त होने से उनके पास ज्यादा वक्त नहीं रह पाते।
तभी से कुड़की से जाकर मेड़ता अपने दादा राव दूदा जी के पास रहने लगी। दूदा जी श्याम कृष्ण के बड़े भगत थे और उनके आसपास हिंदू संस्कृति का वातावरण ही रहता था।
उनके पिता रतन सिंह चाचा वीरमदेव और उनकी दादी सभी वैष्णव धर्म के अनुयाई थे । यदि परंपरागत कथानक में सत्यता को माना जाए, तो बताया जाता है कि मीरा में कृष्ण की प्रति निष्ठा अपनी दादी के द्वारा ही उत्पन्न हुई थी।
एक बार का प्रसंग बताया जाता है कि, एक बार बारात को देखकर बालिका मीरा ने पूछा कि दादी जी यह बारात किसकी है? तो उनको उत्तर मिला कि यह दूल्हे की बारात है। तुरंत ही मीरा ने दूसरा प्रश्न पूछा कि मेरा दूल्हा कहां है ? तो दादी ने कह दिया कि तुम्हारा दूल्हा तो गिरधर गोपाल है।
माना जाता है कि तभी से मीरा गिरधर गोपाल की भक्ति में डूब गई थी और अपने गिरधर गोपाल को पाने के प्रयासों में लग गई थी।
मीरा बाई (Meera Bai) के गुरु संत रैदास
मीराबाई तथा उनके गुरु रैदास जी की कोई ज्यादा मुलाकात हुई हो इस बारे में कोई साक्ष्य प्रमाण नहीं मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि मीराबाई अपने आदरणीय गुरु रैदास जी से मिलने बनारस जाया करती थी।
संत रैदास जी से मीराबाई की मुलाकात बचपन में किसी धार्मिक कार्यक्रम में हुई थी। इसके साथ ही कुछ किताबों और विद्वानों के मुताबिक संत रैदास जी मीराबाई के अध्यात्मिक गुरु थे। मीराबाई जी ने अपनी की गई रचनाओं में संत रैदास जी को अपना गुरु बताया है।
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मीरा बाई (Meera Bai) का वैवाहिक जीवन तथा वैधव्यता
मीराबाई का विवाह राणा सांगा के सबसे बड़े बेटे भोजराज से लगभग 1516 (संवत् 1573) में हुआ था। अभाग्यवस मीराबाई का वैवाहिक जीवन ज्यादा मधुर नहीं रहा और विवाह के कुछ वर्ष (लगभग 5-6 वर्ष) बाद ही उनके पति भोजराज जी का देहांत हो गया। भोजराज की मृत्यु का वर्ष अलग-अलग इतिहासकार अलग-अलग बताते हैं।
बताया जाता है कि जब भोजराज जी की मृत्यु हुई तब मीराबाई को भी सती होने के लिए कहा गया लेकिन ऐसा भी बताया जाता है कि सांगा ने मना कर दिया था उनके सती होने के लिए।
पति की मृत्यु के कुछ समय बाद उनके दादा राव दूदा की मृत्यु हो गई। खानवा युद्ध 1527 के समय रतन सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए थे। 1528 में महाराणा सांगा देहांत हो गया था। इन्हीं बरसों के बीच में उनके चाचा वीरमदेव को मालदेव से हार का सामना करना पड़ा था।
माना जाता है कि मीरा के जीवन के यह वर्ष बहुत दुख भरे रहे थे । ना पिता के घर और ना पति के घर उन्हें कोई खास साथ देने वाला बचा रहा। सांगा की मृत्यु के बाद में उनके उत्तराधिकारी उन्हें ग्रहकरा आरंभ हो गया था।
मेवाड़ राजपरिवार में मीराबाई की उस समय कुछ चलती भी नहीं थी बल्कि उनके स्वतंत्र विचारों से राणा उनके विरोधी हो गए थे। उस समय मेवाड़ के राणा विक्रमादित्य थे।
बताया जाता है कि इसी समय के दौरान विक्रमादित्य ने मीराबाई को खाने में जहर देना, सांप से कटवाना, पानी में डूब मरने का प्रयास किया और उनके चरित्र पर भी राणा द्वारा संदेह किया गया।
इन कथानक के देखने से यही लगता है कि मीराबाई का रवैया एक राजपूत परिवार की स्त्री के रवैया से अलग था मीराबाई एक असाधारण महिला थी। जिसने एक दुख के बाद दूसरे बड़े दुखों का बड़े ही धैर्य से सहन किया और अपने लिए अध्ययन मनन और सत्संग का मार्ग ढूंढ निकाला।
मीरा बाई (Meera Bai) की कृष्ण भक्ति
पति के मृत्यु के बाद इनकी भक्ति दिनों-दिन बढ़ती गई। मीरा अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती रहती थीं। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
मीराबाई की कृष्णभक्ति और इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा जिसके वजह से कई बार उन्हें विष देकर मारने की कोशिश की गई।
बताया जाता है कि मीरा ने विष का प्याला पी लिया था और यह विष का प्याला गिरधर की कृपा से अमृत में परिवर्तित हो गया था।
परंतु कृष्ण भक्ति में लगी हुई मीरा के लिए शादी की यातनाएं और जीवन की सुविधाएं कोई महत्व नहीं रखती थी । उनका जीवन से मोह घटता गया और उनकी निष्ठा भक्ति भाव और संत सेवा की तीव्र गति से बढ़ती चली गई।
कृष्ण के प्रेम के लिए वह किसी अन्य समझौते के लिए तैयार नहीं हो सकती थी । मेवाड़ में अपने भक्ति में लगे रहने के लिए वातावरण को सही ना समझ कर वह वृंदावन चली गई थी। जहां उनके लिए साधना का मार्ग एकदम एकदम सही था।
बताया जाता है कि वह एक दिन वृंदावन के संत रूप गोस्वामी से मिलने गई। गोस्वामी ने जो उच्च कोटि के संत थे उन्हें मिलने से इनकार कर दिया था । यह कहते हुए कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते हैं। मीरा ने उनके जवाब में एक कहलावा भेजा कि क्या वृंदावन में भी पुरुष रहते हैं ? मीरा के लिए कोई पुरुष है तो सिर्फ और सिर्फ कृष्ण है। इस बात से रूप गोस्वामी बहुत प्रभावित हुए और उसके बाद मीरा से मिलने के लिए पहुंचे।
ऐसा बताया जाता है कि मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह मीराबाई से वापस मेवाड़ आने के लिए आग्रह भी किया था और उनको लाने के लिए कुछ सैनिक भी भेजे थे। लेकिन मीराबाई ने वापस आने के लिए इंकार कर दिया था।
उदय सिंह का मानना था की मीराबाई के मेवाड़ छोड़ देने के बाद ही उनके राज्य पर एक के बाद एक संकट आते गए।
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मीरा बाई (Meera Bai) की मृत्यु
ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहाँ द्वारिका में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं।
वैसे तो हम मीरा को लेकर बहुत से कवियों ने अनेक कविताओं की रचना कर दी। परंतु जो भावनाएं उसमें मिलती है वह सभी मीरा की सच्ची भावनाओं की प्रतीक है । आज भी ‘मीरा दासी संप्रदाय’ अनेक भक्तों द्वारा अपनाया जा रहा है और उसके अनुसरण करने वालों की संख्या राजस्थान में बहुत है।
मीरा बाई (Meera Bai) की रचनाएं व साहित्य
श्री कृष्ण के विभिन्न पदों की रचना इनके द्वारा ही की गई है , उन्होंने प्रेम भरे कई पद गाए हैं। इनकी रचनाओं में प्रमुख-:
नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद कि टीका, राग सीरठ के पद, रामगोविंद आदि है।
मीराबाई के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण (Meera Bai Quition Answer in Hindi )
प्रश्न 1. मीराबाई किस काव्यधारा की कवयित्री थीं ?
उत्तर- मीराबाई कृष्ण काव्यधारा की कवयित्री थीं।
प्रश्न 2. मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था। ?
उत्तर – मीराबाई का जन्म 1498 ई. में राजस्थान के कुड़की गाँव में हुआ था।
प्रश्न 3. मीराबाई का विवाह किस से हुआ था ?
उत्तर- मीराबाई का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध राजा महाराजा सांगा के पुत्र कुंवर भोजराज के साथ हुआ था।
प्रश्न 4. मीरा ने रणछोड़ किसे कहा है ?
उत्तर- मीरा ने रणछोड़ श्रीकृष्ण को कहा है।
प्रश्न 5. मीराबाई के गुरु कौन थे?
उत्तर- मीराबाई के गुरु रविदास अथवा रैदास थे।