राणा सांगा का परिचय (Maharana Sanga)
असल में इनका पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह था जिसे राणा सांगा (Rana Sanga)या महाराणा सांगा( Maharana Sanga) के नाम से जाना जाता है।जो मेवाड के सिसोदिया वंश के एक भारतीय शासक थे ।उन्होंने वर्तमान उत्तर-पश्चिमी भारत में गुहिलों (सिसोदिया) के पारंपरिक क्षेत्र मेवाड़ पर शासन किया।
12 अप्रैल को महापुरूष राणा सांगा की जयंती मनाई जाती है।
मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे महाराणा सांगा ।वह अपने समय के भारत के एक बहादुर योद्धा एव अपनी वीरता और उदारता से जानेजाने वाले सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे।
कर्नल टॉड ने राणा सांगा को ‘सिपाही का अंश’ कहा है( “सैनिकों का भग्नावशेष “)कहा जाता था क्योंकि उनके शरीर पर 80 घाव थे राणा सांगा ने युद्ध में एक आंख, 1 हाथ और एक पैर के खराब हो जाने के बाद भी वे युद्ध में आगे रहते थे।
राणा सांगा अपने हौसले को युद्ध भूमि में कभी भी कमजोर पड़ने नहीं देते थे इनके दादा जी का नाम राणा कुंभा था।
उन्होंने हिम्मत मर्दानगी और वीरता को अपनाकर अपने आप को अमर बना दिया. हरबिलास शारदा लिखते है कि ‘मेवाड़ के महाराणाओं में राणा सांगा सर्वाधिक प्रतापी शासक हुए. उन्होंने अपने पुरुषार्थ के द्वारा मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुचाया।
महाराणा सांगा का पूरा इतिहास (Maharana Sanga History in Hindi )पढ़ने के लिए ब्लॉग को अंत तक पढ़े….
राणा सांगा( Rana Sanga) का जन्म व प्रारंभिक जीवन :-
राणा सांगा( Rana Sanga) का जन्म 12 अप्रैल 1482 को चित्तौड़ दुर्ग में हुआ था।इनका पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह था। इनके पिता का नाम राणा रायमल था। सांगा राणा कुम्भा के पोते और महाराणा प्रताप के दादा थे।
महाराणा रायमल के 13 कुंवर और दो पुत्रियां थी जिनमें पृथ्वीराज, जयमल ,राज सिंह तथा संग्राम सिंह राणा सांगा व बहन आनन्दबाई के नाम विशेष उल्लेखनीय है । उन सभी राजकुमारों में पृथ्वीराज बड़ा योग्य और युद्ध विद्या में निपुण था तथा संग्राम सिंह महत्वकांक्षी और बड़ा हि साहसी था।
सबसे पहले तो राज्य की प्राप्ति पृथ्वीराज के लिए संभव थी उसके पश्चात जयमल तथा राज सिंह को राज्य का अधिकार मिल सकता था। इधर महाराणा रायमल का चाचा सारंगदेव भी अपने को राज्य का अधिकारी मानता था।
ऐसी स्थिति में सांगा के लिए राज्य प्राप्त करने की आशा दूर की बात थी ।
कुंवरो में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष
ऐसा कहा जाता है कि एक दिन पृथ्वीराज, जयमल और सांगा अपनी-अपनी जन्मपत्री लेकर एक ज्योतिषी के यहां पहुंचे ज्योतिषी ने बताया कि संग्राम सिंह का राजयोग बड़ा बलिष्ठ है। पृथ्वीराज ने आवेश में आकर अपनी तलवार निकाली जिसे संग्राम सिंह तो बच गया परंतु उसकी तलवार की चोट से सांगा की एक आंख में चोट लगी जिससे एक आंख जाती रही।
महाराजा रायमल का चाचा सारंगदेव वहां आ पहुंचा सारंगदेव ने यह कहा कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर आपस में मनमुटाव अच्छा नहीं है इससे तो अच्छा हो कि वह भीमल गांव की चारण जाति की पुजारिन से जो चमत्कारिक है, इस संबंध का निर्णय करा ले वे सब पुजारिन के पास गए पुजारिन ने भी ज्योतिषी की भविष्यवाणी का समर्थन किया।
कुंवर पृथ्वीराज जिसे अपने बल पर अधिक विश्वास था पुजारिन की बात को असत्य करने के लिए संग्राम सिंह पर टूट पड़ा बताया जाता है यदि सारंगदेव उस समय बीच में ना आता तो संग्राम सिंह का सर धड़ से अलग हो जाता ।
इसको सुनते ही तीनों में वही युद्ध आरंभ हो गया युद्ध में पृथ्वीराज, सारंगदेव और संग्राम सिंह घायल हो गए भागता हुआ संग्राम सिंह उसका पीछा करता हुआ जयमल सेवंत्री गांव पहुंचे । राठौर विद्या ने संग्राम सिंह को शरण दी और स्वयं जयमल के साथ लड़ता हुआ मारा गया।
संग्राम सिंह श्रीनगर (अजमेर )पहुंचा जहां करमचंद पवार ने उसे पनाह दी और वहां कुछ समय अज्ञातवास में रहकर अपनी शक्ति का संगठन करता रहा।
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राणा सांगा (Rana Sanga) का राज्याभिषेक
वैसे तो राणा सांगा के लिए राज्य प्राप्ति का अवसर संभव नहीं था फिर भी परिस्थितियां उनके अनुकूल होती चली गई कुंवर पृथ्वीराज की मृत्यु धोखे से जहर की गोलियां खाने से हो गई और कुंवर जयमल सोलंकी से युद्ध करता हुआ मारा गया ।
सारंगदेव की हत्या कुंवर पृथ्वीराज के द्वारा पहले ही हो चुकी थी अब संग्राम सिंह के विरोधियों की संख्या समाप्त हो चुकी थी और राणा रायमल के पास राणा सांगा को उत्तराधिकारी घोषित करने के अतिरिक्त कोई मार्ग ना था ।
तो संभवत जब रायमल मृत्यु शैया पर था पर था तो 27 वर्षीय सांगा को अजमेर से आमंत्रित कर मई 1509 ईसवी में राणा सांगा का राज्याभिषेक कर दिया गया ।
राणा सांगा के राज्य विषय के समय दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोदी था जिसने आगरा बसाया था।
गुजरात पर विजय
ईडर राज्य के उत्तराधिकार के सवाल पर, गुजरात के सुल्तान, मुजफ्फर शाह, और राणा ने कट्टर दावेदारों का समर्थन किया। 1520 में, सांगा ने ईडर सिंहासन पर रायमल की स्थापना की, जिसके साथ मुजफ्फर शाह ने अपने सहयोगी भारमल को स्थापित करने के लिए एक सेना भेजी। सांगा खुद ईडर पहुंचे और सुल्तान की सेना को पीछे कर दिया गया। राणा ने गुजराती सेना का पीछा किया और ईडर सिंहासन पर रायमल की स्थापना की और गुजरात के अहमदनगर और विसनगर के शहरों को जीत लिया।
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महाराणा सांगा व इब्राहिम लोदी के मध्य युद्ध
खातोली (कोटा ) का युद्ध 1517-18 –
महाराणा सांगा ने जीवन में कई युद्ध लड़े। लेकिन उनके द्वारा लड़ा गया खातोली का युद्ध आज भी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।
1517-18 में,यह युद्ध महाराणा सांगा व इब्राहिम लोदी के मध्य लड़ा गया था ।खातोली के युद्ध में महाराणा सांगा ने बहुत वीरता से इब्राहिम लोदी के सेनाओं का सामना किया। इब्राहिम लोदी भी मेवाड़ी सेना और राणा सांगा की शक्ति को देख दांतो तले उंगली दबाने लगा।
जिसमें सांगा की जीत हुई थी। एक लोदी राजकुमार को पकड़ लिया गया और कैद कर लिया गया। युद्ध में राणा स्वयं घायल हो गए थे।
बाड़ी (धौलपुर)का युद्ध 1518:-
इब्राहिम लोदी ने हार का बदला लेने के लिए, अपने सेनापति मियां माखन के तहत एक सेना सांगा के खिलाफ भेजी। राणा ने फिर से बाड़ी धौलपुर के पास बाड़ी युद्ध में 1518 ई को लोदी सेना को परास्त किया और लोदी को बयाना तक पीछा किया।
इन विजयों के बाद, संगा ने आगरा की लोदी राजधानी के भीतर, फतेहपुर सीकरी तक का इलाका खाली कर दिया। मालवा के सभी हिस्सों को जो मालवा सुल्तानों से लोदियों द्वारा कब्जा कर लिया गया था, को चंदेरी सहित संघ द्वारा रद्द कर दिया गया था। उन्होंने चंदेरी को मेदिनी राय को दिया।
गागरोन का युद्ध 1519 –
सांगा व मालवा शासक महमूद खिलजी द्वितीय के मध्य हुआ जिसमें सांगा की जीत हुई थी। महमूद खिलजी द्वितीय को सांगा ने 3 माह तक बंदी बनाकर रखा फिर छोड़ दिया था। ‘तबकाते अकबरी’ के लेखक निजामुद्दीन अहमद ने राणा के इस उदार व्यवहार की प्रशंसा की।
राणा सांगा व बाबर ( Maharan Sanga And Babur)
बाबर लोदी सामंतों से निमंत्रण पाकर भारत आया और पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी को हराकर विजेता बना ।
राजपूत स्त्रोत यह बताते हैं कि बाबर ने काबुल से राणा को कहलवाया था कि वह इब्राहिम को परास्त करने में उसकी सहायता करें उसने आश्वासन भी दिया था कि विजय होने के बाद में दिल्ली बाबर के राज्य में रहेगा और आगरा तक राणा सांगा के राज्य की सीमा रहेगी।
इस संबंध में, बातचीत सिहाल्दी तंवर के द्वारा हुई और राणा ने राणा ने भी इस प्रस्ताव की स्वीकृति भिजवा दी थी इस प्रकार के पत्र व्यवहार का ब्यौरा मेवाड़ राज्य के प्रमुख पुरोहित की डायरी से ” मेवाड़ के संक्षिप्त इतिहास की पांडुलिपि” में उद्धत मिला है ।
लेकिन जब राणा के सामंतों को यह बात पता चली कि वह विदेशी को सहायता पहुंचाना चाहते हैं तो उन्होंने ऐसा करने से रोका और यह कहते हुए कि सांप को दूध पिलाने से क्या लाभ ।
भला राणा सांगा अपने सामंतों की बात को कैसेटाल सकता था । सांगा ने अपनी शक्ति को संगठित करना आरंभ कर दिया अपने शक्ति बढ़ाने के लिए उसमें चित्तौड़ से प्रस्थान किया और वह बयाना दुर्ग की तरफ बढ़ा और उसे जीत लिया ।
बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527 ई.)
बाबर के सैनिक पानीपत के प्रथम युद्ध से वापस दिल्ली लौट रहे थे तो रास्ते में बयाना (भरतपुर) में राणा साँगा के सैनिकों ने उनको देखा और उन पर आक्रमण कर दिया। बाबर (सेनापति मेहंदी ख्वाजा) व साँगा के सैनिकों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुगल सैनिक डर कर भाग गये और साँगा के सैनिकों की विजय हुई और उन्होंने बयाना के दुर्ग पर अपना कब्जा कर लिया।
डर कर भागे हुए मुगल सैनिक जब बाबर के पास पहुँचे तो बाबर ने साँगा को इस कार्य की सजा देने के लिए अपने सैनिकों को एकत्रित किया। उसी समय काबुल के एक ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने यह घोषणा की कि बाबर के ग्रह इस समय उसके अनुकूल नहीं है, अत: बाबर इस युद्ध में हारेगा और उधर बाबर के सैनिकों ने साँगा के सैनिकों की ताकत को बयाना के युद्ध में देख लिया था।
मुगल सैनिकों ने बाबर को यह कहते हुए कि ये राजपूत युद्ध जीतने के लिए युद्ध नहीं करते अपितु मरने-मारने के लिए युद्ध करते हैं। हम तो तुम्हारे साथ युद्ध करने नहीं जाएँगे क्योंकि हमें अभी जीना है।
राणा सांगा क़ी युद्ध क़ी तयारियां:-
महाराणा सांगा ने सभी राजपूत शासकों के पास पाती परवन भेजा । पाती परवन राजपूती परंपरा जिसमें युद्ध में जाने से पूर्व अन्य शासकों को निमंत्रण भेजा जाता है ।
खानवा युद्ध में सांगा सहयोगी:-
बीकानेर – जैत सिंह पुत्र कल्याणमल
मारवाड या जोधपुर से – गांगापुत्र मालदेव
मेड़ता से – वीरमदेव रतन सिंह मीरा पिता
नागौर से – खान जादा
आमेर से – पृथ्वीराज कछवाह
जगनेर से – अशोक परमार (खानवा युद्ध सहायता करने के कारण अशोक परमार को बिजोलिया की जागीर दी)
मेवाती अलवर – से हसन खान मेवाती सांगा का मुस्लिम सेनापति
बूंदी से – नरपत हाड़ा
चंदेरी से – मेदिनी राय
बागड़ से – उदय सिंह
सदरी – से झाला अज्जा
गोगुंदा से – झाला सज्जा
रायसेन से – सिहाल्दी तंवर
श्रीनगर से – करमचंद पवार
देवलिया से – बाग सिंह
महमूद लोदी + आलम खा लोदी
आदि राजपूत साँगा की तरफ से युद्ध के मैदान में आए।
बाबर(Babur)क़ी युद्ध क़ी तयारियां:
बाबर ने अपने सैनिकों से कहा कि तुम सभी मेरे शराब पीने के कारण परेशान रहते हो, अगर तुम मेरा युद्ध में साथ दोगे तो मैं कभी शराब नहीं पीऊँगा। सैनिकों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि “हे बादशाह! तुम चाहे शराब पीओ या ना पीओ लेकिन हम तुम्हार साथ मरने के लिए वहाँ नहीं जाएँगे।” बाबर ने सैनिकों से कहा कि मैं मुगल व्यापारियों के ऊपर लगने वाले तगमा कर को हटा दूँगा, व जीतने पर सभी सैनिकों को चाँदी का सिक्का दूँगा।
मुगल सान ने कहा कि “हे बाबर! तुम व्यापारियों के ऊपर से कर हटा या मत हटाओ यदि युद्ध में हम तम्हारे साथ जाते हैं तो मरन का बाद हमारे वह सिक्का किस काम का।”अंत में उसने सभी सैनिकों को इसे ‘जैहाद का युद्ध’ (धर्म युद्ध) बताते हुए कहा कि “सभी कुरान को छुकर खुदा का नाम लेकर कसम खाओ कि या तो हम फतह ही करेंगे अन्यथा इस जंग में अपनी जान दे देंगे।” बाबर के इन शब्दों ने मुगल सैनिकों में एक नया उत्साह भर दिया। मुगल सैनिक युद्ध के लिए तैयार हो गए।
खानवा का युद्ध (17 मार्च 1527 ई.) | Khanwa ka Yudh
महाराणा साँगा और बाबर की सेना 17 मार्च, 1527 ई. को गंभीरी नदी के किनारे भरतपुर जिले की रूपवास तहसील के खानवा नामक स्थान पर प्रात: साढ़े नौ बजे के लगभग आमने- सामने हुई। इस युद्ध में साँगा की हार तथा बाबर की जीत हुई।
कर्नल टॉड के अनुसार खानवा के युद्ध में सांगा के सात उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव तथा 104 सरदार उपस्थित थे।
खानवा के युद्ध में साँगा के घायल होने पर उनके मुकुट (राजचिह्न) को सदरी के झाला अज्जा ने धारण किया तो साँगा को अखैराज (सिरोही) व पृथ्वीराज कछवाहा (आमेर) की देखरेख में युद्ध से बाहर भेजा गया।
खानवा का युद्ध भारत के इतिहास का निर्णायक युद्ध था। इस युद्ध में बाबार की विजय से भारत में मुगल वंश की नींव रखी गई। खानवा के युद्ध की विजय के बाद बाबर ने अपने हताहत शत्रुओं की खोपड़ियों को बटोर कर मीनार खडी की और ‘गाजी/हिन्दुधर्म पर बिजली गिराने वाला/काफिरों का वध करने वाला’ को उपाधि धारण की।
महाराणा सांगा की मृत्यु (Maharana Sanga Death)
राणा सांगा (Rana Sanga) को पालकी में बसवा (दौसा) ले जाया गया जहाँ उनको होश आया और वह पुन: युद्ध स्थल पर जाने के लिए तैयार हुए। जब उन्हें युद्ध का हाल पता चला तो उसने बाबर को हराने की शपथ लेते हुए योजना बनाने के लिए इरिच नामक गाँव में पहुँचा।
इरिच में उसके साथियों ने देखा कि इस बार अगर हम बाबर से युद्ध करते है तो हमारा सर्वनाश निश्चित ही है अतः उन्होंने मिलकर कालपी नामक स्थान पर सांगा को विष दे दिया। विष के कारण 30 जनवरी, 1528 ई. को कालपी में ही साँगा की मृत्यु हो गई।
सांगा को कालपी से माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) ले जाया गया, रास्ते में बसवा (दौसा) में रात का पड़ाव डाला गया, उसी की याद में बसवा में आज भी साँगा का चबूतरा (स्मारक) बना हुआ है। माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा)में साँगा का दाह संस्कार किया गया, वहाँ आज भी उसके नाम की छतरी बनी हुई है।
राणा सांगा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल:-
सवाल- बाबर और राणा सांगा का युद्ध कब हुआ?
उत्तर- 1527ई. में।
सवाल- महाराणा सांगा के पिता कौन थे?
उत्तर- राणा रायमल।
सवाल- महाराणा सांगा का राज्याभिषेक कहाँ हुआ?
उत्तर- चितौड़ में।
सवाल- महाराणा सांगा को एक सैनिक का भग्नावशेष क्यों कहा गया है?
उत्तर- क्योकि यह युद्ध में सनिको की तरह युद्ध करते थे।
सवाल-महाराणा सांगा (Maharana Sanga)की मृत्यु कब हुई?
उत्तर- 30 जनवरी 1528 (बसवा, दोसा)
सवाल- महाराणा सांगा का राज्याभिषेक कब हुआ?
1509 ई. में चितौड़।
सवाल- खानवा युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
उत्तर- महाराणा सांगा की पराजय हुई।
सवाल- पानीपत का प्रथम युद्ध कब और कहां हुआ था?
1191 पानीपत ( हरियाणा )