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जालौर के कान्हड़ देव चौहान (1305-1311 ई) का इतिहास

कान्हड़ देव चौहान (Kanhad Dev Chauhan)का परिचय

राजस्थान के इतिहास में बहुत से वीर व पराक्रमी राजपूत राजा हुए है, इन्हीं में से एक थे जालौर के सोनगरा चौहान कान्हड़ देव चौहान (Kanhad Dev Chauhan)  जिन्होंने  जालौर पर 1305-1311 ई तक शासन किया ।
ऐसा बताया जाता है कि अगर समकालीन हिंदू शासकों का सहयोग कान्हड़ देव चौहान को मिल जाता तो वे इतिहास की दिशा को परिवर्तित करने की क्षमता और सामर्थ्य रखते थे।
किसी परिस्थिति का जिक्र करते हुए डॉ. के. एस. लाल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नही थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरूद् एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल हो जाते।’’
कान्हड़ देव के पिता का नाम सामंत सिंह चौहान था। जब खिलजीयो की शक्ति अलाउद्दीन खिलजी के हाथ में आई तो सामंत सिंह ने समय की गति को पहचान कर अपने योग्य पुत्र कान्हड़ देव चौहान के हाथ में अपने राज्य की बागडोर सौंप दी थी।

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कान्हड़ देव (Kanhad Dev) और खिलजी विरोध

कान्हड़ देव और खिलजी विरोध के संबंध में बहुत सी बातें प्रचलित है और विरोध का जो समय था वह भी अलग-अलग माने गए हैं जो क़ी निम्नलिखित प्रकार से है-

🔶 कान्हड़ देव प्रबंध में वर्णित है कि जब अलाउद्दीन खिलजी ने 1298 ईस्वी में गुजरात विजय के लिए अभियान किया तो मार्ग में जालौर पड़ता था । तभी उसने कान्हड़ देव को अपना एक कहलावा भेजा था कि खिलजी सेना को अपनी सीमा सीमा से गुजरने दिया जाए।

परंतु राजपूत वीर में नया जोश था उस समय उसने उसके प्रतिउत्तर में कहलवा दिया की जो सेना ब्राह्मणों की विरोधी है, गौ माता की हत्या करती है तथा स्त्रियों              और शांतिप्रिया जनता को बंदी बनाती है उसके प्रति हमारी कोई सहानुभूति नहीं है।

सुल्तान की सेना मेवाड़ होकर निकल गई. इस सेना ने मार्ग में पड़ने वाले गावों को लूटा, नष्ट भ्रष्ट कर दिया गुजरात में काठियावाड़ को जीता और सोमनाथ के मंदिर तथा शिवलिंग को तोड़ डाला

उस समय खिलजी सेना जिसका नेतृत्व उलगू खां और नुसरत खा कर रहे थे,गुजरात में तबाही मचाकर लौट रही सुल्तान की सेना पर राजपूत सेना ने हमला बोल दिया था। बताया जाता है उलगू खां को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा।

🔶 तारीख ए फरिश्ता के अनुसार इस इस अभियान में 1305 ईस्वी में एन उल मुल्क मुल्तानी के नेतृत्व में एक सेना भेजी भेजी गई और उसने कान्हड़ देव को एक गौरवपूर्ण संधि का आश्वासन देकर उसे दिल्ली ले गया।
जहां दिल्ली दरबार में कान्हड़ देव चौहान को थोड़ा असम्मानित सा महसूस हुआ वह वहां से निकल कर लौट जाना चाहता था ।

तभी एक दिन दरबार में सुल्तान ने कहा कि कोई हिंदू शासक उसकी शक्ति के समक्ष आज तक टिक नहीं सका यह बात कान्हड़ देव चौहान के स्वाभिमान पर चोट कर गई ।
तभी वही अलाउद्दीन खिलजी को युद्ध का न्योता देकर अपने विरुद्ध लड़ने की चुनौती देखकर जालौर लौट गया और युद्ध की तैयारी करने लगा।

🔶जबकि नैनसी लिखता है कि जब कान्हड़ देव का पुत्र वीरमदेव अलाउद्दीन के दरबार में सेवा के लिए रहता था तो अलाउद्दीन खिलजी की राजकुमारी फिरोजा उसे प्रेम करने लगती है।

राजकुमार वीरमदेव तुर्क कन्या से विवाह करना है, अधार्मिक समझता था और वहां से चुपके से भागकर जालौर लौट गया था। इस बात को अलाउद्दीन खिलजी ने अपने स्वाभिमान पर चोट समझी।

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अलाउद्दीन खिलजी का जालौर पर प्रथम आक्रमण 1305 -सिवाना का शाका

जालौर पहुंचने के लिए सेना को सिवाना होकर जाना पड़ता था। उस समय सिवाना को जालौर दुर्ग क़ी कुंजी कहा जाता था ।

अमिर खुसरो एवं कान्हड़ देव प्रबंध के अनुसार सुल्तान 1308 ई में एक बड़ी सेना लेकर सिवाना की ओर चल दिया गया, इस सेना का नेतृत्व कमालुद्दीन गुर्ग ने किया था।

बताया जाता है कि इसी बीच एक राजद्रोही भावला ने किले के मामादेव कुंड में गोरक्त मिलाकर उसे अपवित्र कर दिया था। किले में खाद सामग्री भी समाप्त होने चली थी ।

जब सर्वनाश निकट था तो राजपूत वीरांगनाओं ने मैनादे के नेतृत्व में जोहर कर अपने प्राणो की आहुति दे डाली और किले के फाटक खोल दिए गए।

वीर राजपूत शीतल देव के नेतृत्व में केसरिया बाना पहन कर शत्रुओं पर टूट पड़े और एक-एक करके वीरगति को प्राप्त हो गए। शीतल देव वीर योद्धा की भांति अंत तक लड़ता लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया।

इस विजय के बाद सिवाना दुर्ग का अधिकार कमालुद्दीन गुर्ग को सौंपा और उसका नाम खैराबाद कर दिया था।
इस विजय के बाद मलिक नाइक के नेतृत्व में शत्रु सेना जालौर को घेरने के लिए आगे बढ़ी लेकिन कान्हड़ देव के पुत्र वीरमदेव चौहान और उसके छोटे भाई मालदेव चौहान ने शत्रुओं द्वारा किला लेने का प्रयत्न असफल कर दिया और उन्हें दूर मेड़ता के मार्ग तक खदेड़ दिया।

इस अवधि में राजपूती सेना द्वारा उनका सेनानायक समस खान सहित उसकी पत्नी और साथियों को बंदी बना लिया गया था।

अलाउद्दीन खिलजी का जालौर पर दूसरा आक्रमण 1311 इसवी – जालौर का शाका

अमीर खुसरो के अनुसार 1311 इसवी में दूसरी बार मलिक नाइक  के नेतृत्व में खिलजी सेना आपने साथ अधिक सैनिक और सुसज्जित रूप में जालौर कि और चल पड़ी । कान्हड़ देव ने भी अपनी पूरी शक्ति का संगठन शत्रुओ का मुकाबला करने में लगा दिया था।

तुर्की सेना को जब लगा कि वह जालौर को जीत नहीं सकती तो दहिया राजपूत बिका को अपनी ओर मिला लिया था । जिसने खिलजी सेना को जालौर के दुर्ग की गुप्त सुरंग का पता बता दिया जो जालौर का शासक बनने के सपने देख रहा था।

बताया जाता है कि जब यह बात बिका की पत्नी को पता चला तो उसने अपने पति की उसी समय हत्या कर दी । और यह बात जाकर का कान्हड़ देव को बता दी लेकिन जब तक बहुत देर हो चुकी थी खिलजी सेना ने उसी सुरंग के माध्यम से आक्रमण कर दिया। तभी कहा जाता है कि “राई के भाव तो रात को ही गए”।

कान्हड़ देव को बिल्कुल अंदाजा नहीं था । तभी सभी राजपूत कान्हड़ देव  के नेतृत्व में केसरिया बाना पहन के शत्रुओं पर टूट पड़े । लेकिन शत्रु सेना बहुत ज्यादा होने के कारण एक-एक करके राजपूत अपने प्राणों को अपनी मातृभूमि के लिए न्योछावर करते गए ।

दुर्ग को बचाने के लिए कंधाई , जैत उलीचा, जैत देवड़ा लुणकर्ण, अर्जुन आदि सामंतों ने अपने प्राणों की आहुति दे डाली । कान्हड़ देव भी सच्चे राजपूत की भांति अंत तक लड़ता लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया ।

उनके पुत्र वीरमदेव ने यह समझकर कि या तो शत्रु मार देंगे या बंदी बना लेंगे उन्होंने अपने पेट में कटार घोंप ली। सभी राजपूत महिलाओं ने जैतलदे के नेतृत्व में जोहर कर अपनी सती वर्त का परिचय दिया, इसके साथ ही जालौर के चौहान वंश का पतन हो गया था।

अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग को जीतने के बाद जालौर का नाम जलालाबाद कर दिया था। फिर जालौर दुर्ग में तोप मस्जिद बनवाई, जो राजस्थान की दूसरी मस्जिद बताई जाती है।

खिलजी के 18 वर्षों के दौरान राजस्थान के विभिन्न किलो पर किये आक्रमणों के दौरान 5 बार जौहर हुए। राजस्थान की युद्ध परम्परा में जौहर और शाके की विशिष्ट परम्परा रही हैं, पराधीनता और मृत्यु केवल दो ही विकल्प रह जाने पर जौहर और शाके राजस्थान के इतिहास में बारम्बार हुए।

फिरोजा का वीरमदेव से प्रेम की कहानी

कान्हड़ देव प्रबंध में बताया गया है कि फिरोजा वीरमदेव से बहुत ज्यादा प्रेम करती थी। वीरमदेव फिरोजा से शादी करने के लिए मना करने के बाद जालौर लौट गया था, तो उसके बाद फिरोजा जालौर आ पहुंची।

जहां पर पर कान्हड़ देव ने उसका बहुत अच्छा स्वागत किया । जब फिरोजा ने कान्हड़ देव को कहा कि वह वीरमदेव से शादी करना चाहती है तो कान्हड़ देव ने वीरमदेव से उसकी इच्छा पूछी ।

तभी वीरमदेव ने कहा कि वह एक तुर्क  कन्या से कैसे शादी कर लेगा कहकर उन्होंने मना कर दिया। फिर कान्हड़ देव चौहान ने अपने पुत्र की शादी फिरोजा से कराने के लिए इंकार कर दिया । फिरोजा इससे हताश होकर राजकुमारी दिल्ली लौट गई।

बताया जाता है कि वहां जाकर सारी कहानी अलाउद्दीन को बताई ,तभी अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी राजकुमारी फिरोजा को कहा कि वह वीरमदेव को बंदी बनाकर यहां लेकर आएगा और उसकी शादी आपसे करवाएगा।

जब अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया तो वीरमदेव वीरगति को प्राप्त हो गए और खिलजी ने उनका सर लाकर राजकुमारी फिरोजा को दे दिया। बताया जाता है कि राजकुमारी फिरोजा ने उसके सर से शादी करी और उसके बाद यमुना में कूदकर अपनी जान दे दी।

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