राजस्थान अपने समृद्ध इतिहास, संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है। राजस्थान के इतिहास का एक ऐसा ही पहलू पौराणिक राजपूत योद्धा हैं जो अपनी बहादुरी, वीरता और वफादारी के लिए जाने जाते थे। इन योद्धाओं में वीर दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore)एक ऐसा नाम है जो सदियों बाद भी लोगों के जेहन में गूंजता है। इस लेख में, हम वीर दुर्गादास राठौड़ के जीवन के बारे में गहराई से जानेंगे।
दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore) का जन्म और बचपन
वीर दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore) का जन्म 13 अगस्त 1638 में मारवाड़ के सालवा गांव में हुआ था । उनका जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था।
दुर्गादास महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण के पुत्र थे। माता का नाम (Mother Name) नेतकँवर था ।
बताया जाता है कि आसकरण अपनी पत्नी से नाखुश होने क़ी वजह से उसे और उसके पुत्र दुर्गादास को छोड़ सा दिया था इसलिए दोनों माता और पुत्र लुणावा गांव में रहते और खेतीबाड़ी से अपना गुजारा करते थे शिवाजी और शेर खा की भांति दुर्गादास का प्रारंभिक जीवन आरंभ हुआ। शिवाजी की मां की भांति दुर्गादास की मां ने भी उसमे मारवाड़ और उसके राजवंश के प्रति भक्ति की भावना भर दी थी
उनके पिता, ठाकुर कल्याणदास, एक रईस और मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह के भरोसेमंद सलाहकार थे।
छोटी उम्र से, वीर दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore) को युद्ध कला और युद्ध रणनीति में प्रशिक्षित किया गया था। उन्होंने क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों से घुड़सवारी, तीरंदाजी और तलवारबाजी सीखी।
महाराजा जसवंत सिंह की सेवा
बताया जाता है कि एक मर्तबा दुर्गादास खेती की रखवाली कर रहा था सरकारी रायके ने खड़ी फसल पर अपने ऊंट चरा दिए मना करने पर उसने बहुत बुरा भला कहा यहां तक कि मारवाड़ के जसवंत सिंह राठौड़ (Jaswant Singh Rathore of Marwar) के किले को ‘धोला ढूंढा’ कहा जिस पर छप्पर का अभाव बताया इस अपमानजनक बात को सुनकर दुर्गादास ने रायके को मार दिया जब इसकी सूचना महाराजा के पास पहुंची आसकरण के लड़के के द्वारा की गई हत्या की शिकायत हुई ।
महाराजा ने आसकरण से उसके लड़के के संबंध में पूछा उसने उसे अपने लड़का स्वीकार करने से इंकार कर दिया यह कहते हुए कि कुपुत्र को पुत्र नहीं मानते परंतु जब जसवंत सिंह ने दुर्गादास को अपने पास बुलाया तो उसने अपराध स्वीकार कर लिया उसके मानने को कारण को भी स्पष्ट किया इस निर्भीकता से महाराजा बड़ा प्रसन्न हुआ उसने अपनी सेवा में रख लिया यह बताते हुए कि भविष्य में दुर्गादास मारवाड़ राज्य का उद्धारक होगा।
वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में मारवाड़ की सेना ने अपने शत्रुओं से कई युद्ध जीते। वह एक शानदार रणनीतिकार थे और उनकी सैन्य रणनीति बेजोड़ थी। वह अपने सैनिकों के प्रति अपनी दया और करुणा के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने उन्हें परिवार की तरह माना और यह सुनिश्चित किया कि उनकी अच्छी तरह से देखभाल की जाए।
जसवंत सिंह जी उस समय दिल्ली के सम्राट औरंगजेब के सेनापति थे। औरंगजेब यह चाहता था कि वह पूर्ण रूप से अजमेर पर अपना शासन स्थापित कर ले. परंतु जसवंत सिंह की मृत्यु के बिना यह संभव नहीं हो सकता था।
इसलिए औरंगजेब ने षड्यंत्र पूर्वक जसवंत सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने के लिए भेज दिया. इस युद्ध के दौरान नवंबर 1678 में जसवंत सिंह की मृत्यु हो गई. इस युद्ध पर महाराज जसवंत सिंह के साथ दुर्गादास राठौड़ भी गए थे।
जसवंत सिंह का कोई भी पुत्र नहीं था. औरंगजेब इसी मौके का फायदा उठाकर अजमेर पर शासन करना चाहता था परंतु महाराजा जसवंत सिंह की दोनों पत्नियां गर्भवती थी. दोनों पत्नियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया था परंतु दुर्घटना वश एक पुत्र का जन्म के समय ही निधन हो गया. एक और पुत्र हुआ जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया।
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अजीत सिंह का बचाव
वीर दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore) जानते थे कि उन्हें अजीत सिंह को छुड़ाने और मारवाड़ को मुगलों के चंगुल से बचाने के लिए तेजी से काम करना होगा। उन्होंने वफादार सैनिकों के एक समूह को संगठित किया और मुगल शिविर में घुसपैठ करने की योजना तैयार की, जहां अजीत सिंह को बंदी बनाया जा रहा था।
मारवाड़ के प्रमुख रईस, जिनमें दुर्गादास और राजगुरु, अखेराज सिंह शामिल हैं, अजीत सिंह को उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने के लिए दिल्ली गए।
औरंगजेब ने उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, हालांकि उन्होंने बच्चे के वयस्क होने पर उपाधि और अनुदान देने की पेशकश की। औरंगज़ेब की आवश्यकता थी कि बच्चे को शाही हरम में पाला जाए और रानी भी वहाँ रहे। एक समकालीन स्रोत के अनुसार, औरंगजेब ने सहमति होने पर भविष्य में अजीत सिंह को जोधपुर का सिंहासन देने की भी पेशकश की।
औरंगजेब का रवैया राठौर प्रतिनिधिमंडल को स्वीकार्य नहीं था, जिसने अजीत सिंह और रानियों को दिल्ली से छुड़ाने का संकल्प लिया था। वे जानते थे कि उनमें से कई की इस प्रक्रिया में मृत्यु होने की संभावना थी और यह मामला साबित हुआ: जब वे 25 जून 1679 को शहर से पीछे हटे तो उनका मुगल गार्डों द्वारा पीछा किया गया और रक्षा के लिए कई हताश और घातक रियरगार्ड कार्रवाइयां लड़ीं दुर्गादास, जिनके साथ रानी और बच्चा था उनका शाम तक पीछा जारी रहा, जब मुगल आखिरकार थक गए। शिशु अजीत सिंह को बालुंदा में सुरक्षा के लिए ले जाया गया, जहां एक प्रतिनिधिमंडल की पत्नी ने लगभग एक वर्ष तक बच्चे को रखा।
बाद में, उन्हें मारवाड़ के दक्षिणी किनारे पर एक दूरस्थ आबू शहर सिरोही के पास अरावली पहाड़ियों की सुरक्षा में ले जाया गया। परंतु जब चारों ओर मुगल थानों की निकटता देखी तो दुर्गादास ने महाराणा राज सिंह से प्रार्थना कि उसको अपनी शरण में रख ले जब महाराणा ने स्वीकार कर लिया तो दुर्गा दास आदि सरदार उसको महाराणा के पास लेकर गए ।
महाराणा ने उसे जेवर सहित एक हाथी 11 घोड़े, एक तलवार और 10000 दिनार नजर कि महाराणा अजीत सिंह को 12 गांव सहित केलवा का पट्टा देखकर वहां रखा और राठौड़ सरदारों को उसके संबंध में निश्चिंत रहने का आश्वासन दिया ।
बताया जाता है क़ी ज़ब अजीत सिंह के भाग जाने और जोधपुर पहुंचने की सूचना सम्राट को मिली तो उसने खेल रचा एक लड़के को हरम में रखा और उसे अजीत सिंह घोषित किया यह बताते हुए कि दुर्गादास वाला अजीत नकली राजकुमार है लेकिन यह खेल ज्यादा चल नहीं पाया
वीर दुर्गादास राठौड़ ने अपनी वीरता और सैन्य रणनीति से अजीत सिंह को मुग़ल खेमे से छुड़ाकर मारवाड़ वापस ला दिया। वीरता के इस कार्य ने इतिहास में एक महान योद्धा के रूप में अपना स्थान पक्का कर लिया।
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मुगलों का विरोध
जब औरंगज़ेब ने मेवाड़ पर भी कब्ज़ा करने की कोशिश करने का फैसला किया, तो मुग़ल सेना की क्षमताओं का विस्तार हुआ और इसने राठौरों और सिसोदियों सहित विभिन्न समुदायों के राजपूतों को गुरिल्ला रणनीति का उपयोग करने का अवसर प्रदान किया। हालाँकि, राजपूत सफलताएँ मारवाड़: अभियान में सीमित थीं
मेवाड़ से मुगलों की वापसी का कारण औरंगजेब के एक बेटे अकबर का विद्रोह था, जो मेवाड़ और मारवाड़ में विभिन्न सेनाओं के प्रभारी के रूप में अक्षम साबित हुआ था। उसने अंततः अपने पिता के खिलाफ विद्रोह किया और खुद को राजपूतों के साथ जोड़ लिया।
जून 1681 में दुर्गादास ने अकबर की सहायता की क्योंकि विद्रोह अव्यवस्थित हो गया था, हाल ही में स्थापित मराठा राजा संभाजी के दरबार में उनकी उड़ान में सहायता की। विद्रोह ने संसाधनों को मोड़ दिया और औरंगज़ेब को शांति स्थापित करने के लिए मजबूर होना पड़ा i
1704 में निर्वासन में मरने वाले अकबर ने अपने विफल विद्रोह के बाद अपने बच्चों को दुर्गादास के पास छोड़ दिया था। औरंगज़ेब उन्हें अपने साथ रखने के लिए दुर्गादास के साथ इस अंत तक बातचीत की। उन्होंने 1694 में अपनी पोती और 1698 में अपने पोते की कस्टडी हासिल की। औरंगज़ेब यह जानकर विशेष रूप से आभारी थे कि दुर्गादास ने उनकी पोती और पोते को मुस्लिम धर्म में स्कूली शिक्षा देने की व्यवस्था की थी ।
वीर दुर्गादास राठौड़ की मृत्यु (Durgadas Rathore Death)
22 नवंबर 1718 में दुर्गादास राठौड़(Durgadas Rathore) का निधन हो गया. लाल पत्थर से बना उनका अतिसुंदर छत्र आज भी उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान में शुशोभित है. जो सभी राजपूतो और देशभक्तों के लिए तीर्थ स्थान है।
लेकिन उनकी विरासत आज भी कायम है। उन्हें एक बहादुर योद्धा, एक शानदार रणनीतिकार और मारवाड़ के एक वफादार पुत्र के रूप में याद किया जाता है। उनका जीवन लोकगीतों और कहानियों में मनाया जाता रहा है और वे आज भी युवाओं को प्रेरित करते हैं।
राजस्थान सरकार ने भी राज्य में उनके योगदान को मान्यता दी है और उनके नाम पर कई सार्वजनिक संस्थानों का नाम रखा है।
दुर्गादास राठौड़ की वीरता और साहस के गुणगान में मारवाड़ में यह उक्ति प्रचलित है ‘मायड़ ऐसा पूत जण जैसा दुर्गादास ‘। कर्नल जेम्स टॉड ने उसे ‘राठौड़ों का यूलीसेज ‘ कहा है।