Maharaja Sawai Jai singh 2 History

आमेर के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय का इतिहास

महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय का परिचय (Maharaja Sawai Jai singh 2 History in Hindi)

इतिहास में बहुत सारे ऐसे राजा हुए हैं जो अपने समय एक आदर्श और साक्षी शासन के रूप में अपना स्थान बनाया है, ऐसे ही राजस्थान के आमेर राज्य के सूर्यवंशी कछवाह राजवंश के सर्वाधिक प्रतापी शासक थे महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय (Maharaja Sawai Jai singh 2)
जिन्होंने अपने प्रशासनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महाराज के रूप में अपनी अद्भुत पहचान छोड़ी थी। वहीं ‘पंडित जगन्नाथ’ को उनका गुरू व सलाहकार माना जाता था। सवाई जयसिंह को खगोल विद्या का ज्ञान उनके गुरु पंडित जगन्नाथ से ही प्राप्त हुआ था। इसके अलावा राजा जयसिंह को संगीत एवं कला में भी बहुत रुचि थी।

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महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय का जन्म और प्रारम्भिक जीवन (Maharaja Sawai Jai Singh 2 Birth)

सवाई जयसिंह (Maharaja Sawai Jai singh 2) का जन्म 3 सितंबर 1688 को अमर में हुआ था। जयसिंह के पिता का नाम बिशन सिंह कछवाह और माता का नाम इंद्र कुंवरी था।
यह बिशन सिंह के सबसे बड़े बेटे थे। जन्म के समय पहले इनका नाम विजय सिंह और उनके छोटे भाई का नाम जय सिंह था।
जब सम्राट औरंगजेब भी है तो उसने देखा क़ी मिर्जा राजा जयसिंह की तुलना में यह वीरता में उनसे सवाया है तो, इनका नाम सवाई जयसिंह कर दिया और फिर छोटे भाई का नाम विजय सिंह रख दिया था।
इसके बाद से ही जयपुर के सभी राजा अपने नाम के आगे सवाई रखने लगे थे। मात्र मात्र 12 वर्ष के थे सवाई जयसिंह जब उन्होंने 1700 ईस्वी में राज्य का भार संभाला था।
1701 में ही राजा जयसिंह औरंगजेब की सहायता के लिए बुरहानपुर पहुंच गए थे इससे औरंगजेब खुश होकर सवाई जय सिंह की मनसब 2007 और 2000 सवार कर दिया था।
इस 1707 औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों में राजनीति के लिए भयंकर युद्ध शुरू हो गया था। इस उत्तराधिकारी युद्ध में सवाई जयसिंह ने आजम का साथ दिया था और उनके छोटे भाई विजय सिंह जो अमर के राजा बनना चाहते थे उन्होंने मुअज्जम का साथ दिया था।
2 जून 1707 ईस्वी में जजाऊ के मैदान में उत्तराधिकार के लिए दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें आजम मर गया और मोहर्रम की जीत हुई जीत के बाद जय सिंह मुअज्जम के साथ मिल गए थे। इसी जीत के बाद शहजादा मुअज्जम बहादुर शाह के नाम से राजगद्दी पर बैठा था।
बहादुर शाह जयसिंह से ज्यादा खुश नहीं थे क्योंकि जय सिंह ने आजम का साथ दिया था। इसी का दंड देने के लिए बहादुर शाह अमीर आया और विजय सिंह को आमेर की गद्दी पर बैठा दिया।
इसके बाद बहादुर शाह ने आमेर का नाम बदलकर मोमीनाबाद कर दिया और उसका फोजदार सैयद हुसैन खान को बनाया गया था।

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देबारी समझौता (Debari Samjhota)

मुअज्जम ( बहादुर शाह ) के खिलाफ यह समझौता मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय, मारवाड़ के अजीत सिंह और जयपुर के सवाई जयसिंह के मध्य 1708 में हुआ था।
इस समझौते के तहत अमर सिंह द्वितीय की पुत्री चंद्रकंवर का विवाह जयसिंह से तय किया गया एवं यह शर्त रखी गई की चंद्रकंवर का होने वाला पुत्र जयपुर का अगला शासक होगा।
देबारी समझौता (Debari Samjhota)  के तहत ही तीनों राज्य की सेवा पहले मारवाड़ पहुंचकर अजीत सिंह का अधिकार स्थापित करवाया। 1710 ईस्वी में जय सिंह को जयपुर के राजा के रूप में दोबारा स्वीकार कर लिया गया था।

जाटों को दबाने का काम जय सिंह को मिला

जो मोहम्मद शाह मुगल सम्राट बना तो 1722 ईस्वी में फिर जाटों को दबाने का काम जय सिंह को मिला था।
चूड़ामण के मर जाने पर उसके लड़के मुकाम, वीर, रोमा मुगल शक्ति का विरोध करते रहे।
परंतु जय सिंह ने चूड़ामण के भतीजे बदन सिंह को अपनी ओर मिला लिया। बदन सिंह की सहायता से जाट भयंकर रूप से खडेढ़ दिए गए और अंत में मोकल जोधपुर चला गया था।
इस विजय से बेहद खुश होकर मोहम्मद शाह ने जय सिंह को सरमद ए राजा हिंद, राज राजेश्वर, श्री राजाधिराज सवाई की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया और बदन सिंह को जिसने सवाई जयसिंह की जाटों को दबाने में सहायता की थी जाटों का नेता स्वीकार करके उसे ब्रज राजा की पदवी दी गई थी।
महाराजा इसलिए सवाई जयसिंघाइट को इतिहासकारों ने चाणक्य की संज्ञा दी है।

जयपुर की स्थापना

जयपुर की स्थापना 18 नंबर 1727 ईस्वी में सवाई जयसिंह ने की थी। जयपुर की नींव पंडित जगन्नाथ ने रखी थी और वास्तुकार थे विद्याधर भट्टाचार्य। जयपुर को नो चौकड़ीयों का शहर कहते हैं।
बताया जाता है कि जयपुर के चारों ओर दीवार होती थी जो मिर्ज़ा इस्माइल ने तुड़वा दी जिसे आधुनिक जयपुर निर्माता भी कहा जाता है। उनके नाम पर एक जयपुर में M.I. रोड भी है।

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हुरड़ा सम्मेलन

मराठाओं की शक्ति से लड़ने के लिए राजपूताना को एक करने के लिए सवाई जयसिंह ने 17 जुलाई 1734 ई को हुरड़ा भीलवाड़ा नामक स्थान पर राजपूताना के शासको का एक सम्मेलन आयोजित किया था।
इसमें जयपुर के सवाई जयसिंह, बीकानेर के जोरावर सिंह, कोटा के दुर्जन साल सिंह, बूंदी के दलेल सिंह, नागौर के बख्त सिंह, किशनगढ़ के राज सिंह, करौली के गोपाल सिंह और मेवाड़ के महाराणा जगत सिंह द्वितीय सम्मिलित हुए थे।
इसमें यह तय किया गया था कि सभी इकट्ठे होकर वर्षा ऋतु के बाद रामपुर आंगनचा में पहुंचेंगे। खानवा युद्ध के बाद अगर राजपूताना शक्ति एक हुई थी तो हुरड़ा सम्मेलन में थी। यह एक इतिहास तो बना लेकिन इतिहास नहीं बदल सका क्योंकि सभी राजा अपने निजी स्वार्थ के चक्कर में वहां पहुंचे ही नहीं।

धौलपुर समझौता 1741 ई

पेशवा बालाजी बाजीराव सवाई जयसिंह की भेंट धौलपुर में हुई 18 मई 1741 तक पेशवा धौलपुर में ही रहा और जय सिंह से समझौते की बातचीत की अंत में दोनों के बीच एक समझौता हो गया।
सवाई जयसिंह की सलाह से बादशाह ने 4 जुलाई 1741 ई को जो समझौता किया गया था। उसके हिसाब से फरमान जारी कर दिया गया था जिसे बादशाह की मान प्रतिष्ठा भी बनी रही शाही समर्पण भी छुपा रहा।

सवाई जयसिंह की वेधशाला

महाराजा सवाई जयसिंह (जयसिंह II) (Sawai Jai Singh) की स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना ‘जंतर मंतर’ के निर्माण के लिए जाना जाता है। जयसिंह के द्वारा भारत में अनेक स्थानों पर वेधशाला का निर्माण कराया गया। बता दें कि उन्होंने भारत में कुल 5 वेधशाला का निर्माण करवाया है, जिनमें सबसे बड़ी वेधशाला (जंतर मंतर) जयपुर में है।

यहाँ दुनिया की सबसे बड़ी सूर्यघड़ी भी है, ऊंचाई नापने के लिए ‘राम यंत्र’ भी यही है । जयपुर के अतिरिक्त यह वेधशाला उज्जैन, मथुरा, दिल्ली और वाराणसी में भी है। आपको बता दें कि पहली वेधशाला का निर्माण 1725 ई. में दिल्ली में हुआ और इसके बाद 1734 ई. में जयपुर में जंतर मंतर का निर्माण करवाया गया।

जंतर मंतर (जयपुर) का इतिहास

राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थित जंतर मंतर को कौन नहीं जानता है। यह भारत के खूबसूरत ऐतिहासिक स्मारकों में से एक है, जिसका निर्माण सवाई जयसिंह II द्वारा 1724 ई. से 1734 ई. के बीच किया गया था।

उन्होंने इस विशाल वेधशाला का निर्माण अंतरिक्ष और समय के बारे में जानकारी इकट्ठा करने और उसका अध्ययन करने के लिए किया था। जयपुर में स्थित इस वेधशाला को साल 2010 में यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में भी शामिल किया गया था।

सवाई जयसिंह द्वारा किया गया अश्वमेध यज्ञ

जय सिंह अंतिम हिंदू सम्राट थे जिसने पुंडरीक रत्नाकर की देख में अश्वमेघ यज्ञ करवाया था। यह अश्वमेध यज्ञ 1742 ईस्वी में किया गया था ।
यज्ञ का घोड़ा जयपुर नगर में छोड़ा गया था जिसको स्वर्ण पट्टीका बांधकर चारों ओर घुमाया गया था। बताया जाता है कि कुम्भानी राजपूत ने घोड़े को रोककर अपने वंश गौरव का परिचय दिया था।

सवाई जयसिंह की मृत्यु (Maharaja Sawai Jai Singh 2 Death)

सवाई जयसिंह अपने 44 वर्ष के शासनकाल में पांच बादशाह और तीन महाराणा हुए, तीन पेशवा के संपर्क में आए थे। सवाई जयसिंह की मृत्यु 21 सितंबर 1743 हुई थी।
सवाई जय सिंह पहले राजपूत हिंदू शासक था जिसने सती प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की थी। वह पहले हिंदू राजपूत राजा था जिसने विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्राप्त करवाने के लिए बहुत नियम बनाए और उन्हें लागू करने का प्रयास भी किया था।

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